‘कविकुंभ’ के आठवें वार्षिक शब्दोत्सव पर जुटे देशभर के प्रख्यात कवि, इन अहम मुद्दों पर हुई चर्चा

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लीलाधर जगूड़ी और डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने साझा किए अपने विचार, कविता पाठ से श्रोताओं को किया भावविभोर

खबरनामा/देहरादून/तरन्नुम हुसैन। देहरादून के सहारनपुर रोड स्थित इंजीनियर्स क्लब के ऑडिटोरियम में शनिवार को साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘कविकुंभ’ के आठवें वार्षिक शब्दोत्सव का आयोजन किया गया है। इस दो दिवसीय कार्यक्रम के पहले दिन साहित्य और समाज से जुड़े अहम मुद्दों पर चर्चा के लिए देशभर के कवि जुटे। तो वहीं उन्होंने समकालीन कविता से जुड़े अहम प्रभावों पर प्रभाव डाला और इस पर जोर दिया कि सोशल मीडिया के इस दौर में किस तरह से साहित्य को बचाने की जरूरत है। कार्यक्रम में युवा कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ भी किया।

शब्दोत्सव एवं बीइंग वुमन के स्वयं सिद्धा सम्मान समारोह का प्रथम सत्र सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन से प्रारंभ हुआ। ख्यात कवि लीलाधर जगूड़ी ने कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि, साहित्य ने उन पर काफी उपकार किया है। उन्होंने अपने जीवन के शुरुआती दिनों में काफी ठोकरें खाईं, लंबा संघर्ष किया उनके साथ हताशा और निराशा के दौर गुजरे लेकिन उन्होंने कभी साहित्य का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा कि बचपन में असहज कर देने वाली आदतों के कारण किसी अप्रिय राह पर भी जा सकते थे लेकिन साहित्य ने उनको अपराधी होने से बचा लिया। उन्होंने कहा कि जीवन में जो लोग ठोकरें नहीं खाते, वह पिछड़ जाते हैं। पत्थर ठोकर नहीं खाते। ठोकर पानी खाता है, हवा खाती है। पानी और हवा प्रवाहित हो जाते हैं, पत्थर वहीं रह जाता है।

उन्होंने कहा कि कविता छंद और छंदविहीनता का नाम नहीं है। शब्दस्य छंदः अर्थात शब्द ही छंद है। जो कथन है, वही छंद हो जाता है और जो छंत है, वही कथन है। शब्द कितना बोलते हैं और कितना समझते हैं, केवल शब्द इसे ही कविता नहीं रची जाती, उसमें गहरी अनुभूति का होना आवश्यक है। शब्द ने हर जगह अपनी सत्ता कायम की है, कारण, शब्द में ध्वनि है। शब्दों को अपने इशारों पर कितने कवियों ने हांका है। निराला और प्रसाद ने शब्दों को नया रूप दिया। उनका इस्तेमाल उन्होंने अपने हिसाब से करते हुए नए शब्दों का सृजन किया। जगूड़ी ने कहा कि उनके खराब दिनों में वाराणसी के कवि डॉक्टर शंभूनाथ सिंह, नामवर सिंह से आगे की राह मिली। छात्र जीवन के उन दिनों में मन भटक सकता था लेकिन साहित्यिक संगति उन्हें पीछे खींच लाती थी। बनारस ने उन्हें भोजन भी दिया, विद्या भी दी और आगे का यशस्वी जीवन भी दिया।

ख्यात गीतकवि डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने सरस्वती वंदना से श्रोताओं को भावविभोर करते हुए कवि लीलाधर जगूड़ी को अपना साहित्यिक पथ प्रदर्शक कहा। उन्होंने कहा कि जगूड़ी जी की वजह से उन्होंने काशी से उत्तरकाशी तक का सफर किया। सन् 1971 से शुरू हुआ यह सफ़र आज़ भी उनके सान्निध्य और दिशानिर्देश में अनवरत जारी है। समकालीन कविता के शिल्प और संवेदना पर उन्होंने कहा कि आज़ कितने ही कवि और साहित्यकार शब्दों से खेलते हैं। कविता आम जन की सामान्य भाषा में ही लोकप्रियता प्राप्त करती है।

डॉ मिश्र ने कहा कि कवि गोपाल सिंह नेपाली ने पांचवीं तक ही स्कूली शिक्षा पाई थी लेकिन वह पहले ऐसे कवि रहे, जिनकी रचनाएं आम लोगों की जुबान पर हुआ करती थीं। शब्दों के दूसरे जादूगर हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ आज़ मुद्दत बाद भी आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनी हुई है। इस कड़ी में उन्होंने कवि गोपाल दास नीरज का उल्लेख करते हुए कहा कि उनके रचे गीतों ने आज़ भी देश-समाज में अपना अलग स्थान बना रखा है। उन्होंने कहा कि आज़ मंचों पर पढ़ी जाने वाली हास्यरस की रचनाएं कविता न होकर, चुटकुलेबाजी होती हैं। चुटकुलेबाजी से जो जितना हंसाता है, उसका लिफाफा उतना ही मोटा हो जाता है। आज़ सोशल मीडिया की बाढ़ कुछ ऐसी हो गई है कि इसमें घर-परिवार ही नहीं, कविता भी उजड़ गई है।

समकालीन कविता के शिल्प और संवेदना पर, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) की हिंदी पत्रिकाओं की प्रधान संपादक डॉ अमिता दुबे ने कहा कि समकालीन शब्द में एक ऐसा व्यापक दृष्टिकोण निहित है, जो आज़ रचा जा रहा, या जब कबीर रच रहे थे, तब भी वह समकालीन ही था। हर व्यक्ति में संवेदना और अनुभूति होती है लेकिन अभिव्यक्ति सबके पास नहीं होती है। वह तो ईश्वर प्रदत्त होती है। कविता साहित्य की प्राचीनता विधा है। मेरी दृष्टि में, मैंने जो भी पढ़ा है, वह कविता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो हर रचनाकार को ख़तरे उठाने होते हैं। कविता जितने सरल शब्दों में होती है, उसे उतनी ही सहजता से पाठक आत्मसात कर लेता है। आज के दौर के रचनाकारों पर अफसोस जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि ज्यादातर कवि-लेखक अपने सृजन में संपादक की दखल नहीं चाहते हैं।

‘कविकुंभ’ संपादक एवं शब्दोत्सव की संयोजक रंजीता सिंह ‘फ़लक’ ने कहा पत्रिका परिवार की ओर से कवि लीलाधर जगूड़ी को बीएन सिंह स्मृति सम्मान एवं शैल देवी स्मृति सम्मान से समादृत करते हुए कहा कि आज़ के दौर में साहित्यिक पत्रिकाओं के अनवरत प्रकाशन में आने वाली तमाम कठिनाइयां कदम कदम पर राह रोक लेती हैं लेकिन ‘कविकुंभ’ अपने सौवें अंक के प्रकाशन के करीब है। यह उनकी साहित्यिक से ज्यादा व्यक्तिगत यात्रा है। इससे उनकी आत्मा संतुष्ट होती है। वह वही कर रही हैं, जो वह जीवन में करना चाहती थीं, इसलिए इस राह का हर संघर्ष उन्हें बौना लगता है। वह ‘कविकुंभ’ और शब्दोत्सवों के माध्यम से अपनी साहित्यिक यात्रा में नई प्रतिभाओं की ताकत बनना चाहती हैं।

बता दें कि पहले दिन कई कड़ियों में चर्चाएं और प्रतियोगिताएं आयोजित की गई। जहां उत्तराखंड के अलावा देश के अन्य प्रांतों से कवि-साहित्यकार जुड़े तो वहीं समकालीन कविता से जुड़े मुद्दे और
पैतृक संपत्ति में बेटियों का अधिकार, कितनी रार कितनी तकरार विषय जैसे समाज से जुड़े बड़े मुद्दों पर चर्चा की गई है। जिसमें उत्तराखंड के अलावा देश के अन्य प्रांतों से पहुंचे कवि-साहित्यकारों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस लॉयर फरहा फ़ैज़, मौली सेठ और रंजीता सिंह ‘फ़लक’ ने सम्पत्ति का अधिकार बेटियों का अधिकार पर धार्मिक-सामाजिक और कानूनी बिंदुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने समाज में बदलाव और बेटियों को स्वतः उनका अधिकार देने की बात रखी। हर घर में बेटियों को उनका हक बेटों को बराबर देने पर चर्चा की गई। ताकि महिलाओं को अपना हक लेने में किसी प्रकार का संकोच न हो। जिसके बाद युवा कविताओं ने अपनी स्वराचित कविताओं का पाठ किया। शाम को मुशायरे का आयोजन किया गया।

इस कार्यक्रम में मुख्य रूप से कवि अष्टभुजा शुक्ल, सुभाष राय, उषा राय, नलिन रंजन सिंह, संजीव जैन साज, नवनीत पांडेय, रघुवीर शरण शर्मा सहज, मौली सेठ, डॉ रानी श्रीवास्तव, सुशीला टाकभौरे, दीपचंद महावर शादाब, अखिलेश श्रीवास्तव, फरहा फ़ैज़, शिवमोहन सिंह, भावना मिश्रा, राजेश अरोड़ा आदि ने कविता पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन रंजीता सिंह ‘फ़लक’, चंद्रमणि ब्रह्मदत्त एवं भारती शर्मा ने किया।


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